आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में नाड़ी विज्ञान का विशेष महत्व है। प्राचीन काल में वैद्य किसी भी रोग के उपचार के लिए नाड़ी परीक्षण का ही सहारा लिया करते थे। नाड़ी परीक्षण आयुर्वेद की ऐसी पद्धति है जिसके माध्यम से रोग का सटीक पता लगाया जाता है और उसके बाद आयुर्वेद की रसौषधि व वनौषधि के जरिए उपचार शुरू किया जाता है। आइए जानते हैं इस चिकित्सा के बारे में।
वात, पित्त व कफ
नाड़ी परीक्षण के दौरान पहली तीन अंगुलियों तर्जनी, मध्यमा व अनामिका (इंडेक्स, मिडिल व रिंग) के माध्यम से नाड़ी की गति के सहारे वात, पित्त व कफ के स्तर का पता लगाया जाता है। आमतौर पर 68-74 केे बीच नाड़ी की गति को सामान्य माना जाता है। इस गति के अधिक या कम होने पर व्यक्ति रोग से पीडि़त माना जाता है।
रोग सताता है ऐसे
वात: कमर से लेकर घुटने व पैरों के अंत तक जितने रोग होते हैं वे सब वात बिगड़ने के कारण होते हैं।
पित्त: छाती के बीच से लेकर पेट और कमर के अंत तक जितने रोग होते हैं, वे पित्त गड़बड़ाने से होते हैं।
कफ : सिर से लेकर छाती के बीच तक जितने रोग होते हैं वे सब कफ बिगडऩे के कारण होते हैं।
खट्टी चीजों से परहेज
नाड़ी रोग चिकित्सा के दौरान व्यक्ति को खट्टी चीजों जैसे नींबू, दही, छाछ, अचार व अमचूर आदि से परहेज करना चाहिए क्योंकि ये चीजें दवाओं के प्रभाव को कम कर देती हैं। साथ ही मैदा, बेसन व चने से बनीं चीजों के सेवन से बचना चाहिए वर्ना पेट संबंधी समस्या हो सकती हैं।
दूसरे विकल्प भी संभव
इस चिकित्सा पद्धति के साथ-साथ होम्योपैथिक व एलोपैथिक दवाएं ली जा सकती हैं क्योंकि इन दवाओं का कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। लेकिन दोनों पद्धतियों की दवाइयां लेने के बीच एक घंटे का अंतराल होना चाहिए। इसमें रोग की गंभीरता के अनुसार इलाज लंबा भी चल सकता है।
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